Wednesday, 4 November 2015

दिवाली लेख पांच पर्वों का प्रतीक है दिवाली



त्योहार या उत्सव हमारे सुख और हर्षोल्लास के प्रतीक है जो परिस्थिति के अनुसार अपने रंग-रुप और आकार में भिन्न होते हैं। त्योहार मनाने के विधि-विधान भी भिन्न हो सकते है किंतु इनका अभिप्राय आनंद प्राप्ति या किसी विशिष्ट आस्था का संरक्षण होता है। सभी त्योहारों से कोई न कोई पौराणिक कथा अवश्य जुड़ी हुई है और इन कथाओं का संबंध तर्क से न होकर अधिकतर आस्था से होता है। यह भी कहा जा सकता है कि पौराणिक कथाएं प्रतीकात्मक होती हैं।
कार्तिक मास की अमावस्या के दिन दिवाली का त्योहार मनाया जाता है। दिवाली को दीपावली भी कहा जाता है। दिवाली एक त्योहार भर न होकर, त्योहारों की एक श्रृंखला है। इस पर्व के साथ पांच पर्वों जुड़े हुए हैं। सभी पर्वों के साथ दंत-कथाएं जुड़ी हुई हैं। दिवाली का त्योहार दिवाली से दो दिन पूर्व आरम्भ होकर दो दिन पश्चात समाप्त होता है।
दिवाली का शुभारंभ कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष त्रयोदशी के दिन से होता है। इसे धनतेरस कहा जाता है। इस दिन आरोग्य के देवता धन्वंतरि की आराधना की जाती है। इस दिन नए-नए बर्तन, आभूषण इत्यादि खरीदने का रिवाज है। इस दिन घी के दिये जलाकर देवी लक्ष्मी का आहवान किया जाता है।
दूसरे दिन चतुर्दशी को नरक-चौदस मनाया जाता है। इसे छोटी दिवाली भी कहा जाता है। इस दिन एक पुराने दीपक में सरसों का तेल व पाँच अन्न के दाने डाल कर इसे घर की नाली ओर जलाकर रखा जाता है। यह दीपक यम दीपक कहलाता है।
एक अन्य दंत-कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने इसी दिन नरकासुर राक्षस का वध कर उसके कारागार से 16,000 कन्याओं को मुक्त कराया था।
तीसरे दिन अमावस्या को दिवाली का त्योहार पूरे भारतवर्ष के अतिरिक्त विश्वभर में बसे भारतीय हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। इस दिन देवी लक्ष्मी व गणेश की पूजा की जाती है। यह भिन्न-भिन्न स्थानों पर विभिन्न तरीकों से मनाया जाता है।
दिवाली के पश्चात अन्नकूट मनाया जाता है। यह दिवाली की श्रृंखला में चौथा उत्सव होता है। लोग इस दिन विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर गोवर्धन की पूजा करते हैं। 
शुक्ल द्वितीया को भाई-दूज या भैयादूज का त्योहार मनाया जाता है। मान्यता है कि यदि इस दिन भाई और बहन यमुना में स्नान करें तो यमराज निकट नहीं फटकता।

दिवाली भरत में बसे कई समुदायों में भिन्न कारणों से प्रचलित है। दीपक जलाने की प्रथा के पीछे अलग-अलग कारण या कहानियाँ हैं।
राम भक्तों के अनुसार दिवाली वाले दिन अयोध्या के राजा राम लंका के अत्याचारी राजा रावण का वध कर के अयोध्या लौटे थे। उनके लौटने कि खुशी यह पर्व मनाया जाने लगा।
कृष्ण भक्तों की मान्यता है कि इस दिन भगवान श्री कृण्ण ने अत्याचारी राजा नरकासुर का वध किया था।  इस नृशंस राक्षस के वध से जनता में अपार हर्ष फैल गया और लोगों ने प्रसन्नतापूर्वक घी के दीये जलाए।
एक पौराणिक कथा के अनुसार विंष्णु ने नरसिंह रुप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था तथा इसी दिन समुद्रमंथन के पश्चात देवी लक्ष्मी व भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए।
जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस भी दीपावली को ही हुआ था।
बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध के अनुयायियों ने 2500 वर्ष पूर्व गौतम बुद्ध के स्वागत में लाखों दीप जला कर दीपावली मनाई थी। दीपावली मनाने के कारण कुछ भी रहे हों परंतु यह निश्चित है कि यह वस्तुत: दीपोत्सव है।
सिक्खों के लिए भी दिवाली महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था और दिवाली ही के दिन सिक्खों के छ्टे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को कारागार से रिहा किया गया था।
नेपालियों के लिए यह त्योहार इसलिए महान है क्योंकि इस दिन से नेपाल संवत में नया वर्ष आरम्भ होता है।

दीप पर्व का समापन दिवस देवउठनी एकादशी से शुभ-मांगलिक कार्य प्रारंभ

भारतीय संस्कृति की मान्यता के अनुसार हमारे देश में सदैव दिव्य शक्ति को जागृत किया जाता है। इससे संपूर्ण विश्व में शांति, समृद्धि, मानवीय मूल्यों, धर्म, सत्य, न्याय, सत्कर्म, अच्छाई व सचाई का दीपक जलता रहता है। आज विश्व में हिंसा, अनाचार, अराजकता, अव्यवस्था व अशांति का परिवेश है। ऐसे में देव-आराधना का महत्व द्विगुणित हो जाता है। 

तुलसी का प्रतिदिन दर्शन करना पापनाशक समझा जाता है तथा पूजन करना मोक्षदायक। देवपूजा और श्राद्धकर्म में तुलसी आवश्यक है। तुलसी पत्र से पूजा करने से व्रत, यज्ञ, जप, होम, हवन करने का पुण्य प्राप्त होता है। कहते हैं भगवान श्रीकृष्ण को तुलसी अत्यंत प्रिय है। 

देवउठनी एकादशी के दिन व्रत करने, भगवत भजन करने एवं संध्या के समय ईख (गन्ने) का मंडप बनाकर मध्य में चौकी पर भगवान विष्णु को प्रतिष्ठित करने एवं दीप प्रज्वलित करके गंध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य आदि के साथ पूजन कार्य श्रद्धापूर्वक करना चाहिए। 



मान्यता है कि भगवान विष्णु चार माह के शयनोपरांत इस दिन क्षीरसागर में जागे थे। इसीलिए उनके शयनकाल में मांगलिक कार्य संपन्न नहीं किए जाते हैं। हरि-जागरण के उपरांत ही शुभ-मांगलिक कार्य प्रारंभ होते हैं। 

व्रती महिलाएं इस दिन प्रातःकाल स्नान आदि से निवृत्त होकर आंगन में चौक पूरकर भगवान विष्णु के चरणों को कलात्मक रूप से अंकित करती हैं। तेज धूप में विष्णुजी के चरणों को ढंक दिया जाता है। रात्रि को विधिवत पूजन के बाद प्रातःकाल भगवान को शंख, घंटा, घड़ियाल आदि बजाकर जगाया जाता है। इसके बाद पूजा कर कहानी सुनाई जाती है। 

वस्तुतः देवोत्थान एकादशी को दीप पर्व का समापन दिवस भी माना जाता है। इसीलिए इस दिन लक्ष्मी का पुण्य स्मरण करना भी विस्मृत नहीं करना चाहिए। 

भो दीप! त्वं ब्रह्मरूप अंधकार निवारक।
इमां मया कृतां पूजां ग्रह्यंस्तेजयः प्रर्वधाय॥
ॐ दीपेभ्योनमः॥
शुभंभवतु कल्याण्मारोग्यं पुष्टिवर्द्धनम्‌।
आत्मतत्व प्रबोधाय दीपज्योर्तिनमोऽस्तुते॥ 

इस प्रकार मां लक्ष्मी का स्मरण करने से घर में सुख-सुमृद्धि, धन वर्षा, आरोग्य तथा सभी सुखों की प्राप्ति होती है।